न्यूनतम समथर्न मूल्य: एक जन-केंद्रित परिप्रेक्ष्य (Minimum Support Price: A People-Centric Perspective)

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न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एक वायदा है जो भारत सरकार द्वारा किसानों और कृषि श्रमिकों को किसी भी तरह की कृषि उत्पादक दामों में तीव्र गिरावट के दौरान सुरक्षा मुहिया कराता है| न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकारी व्यवस्था में एक नीतिगत साधन है और इसे आमतौर पर फसलों की  बीजारोपण  के  शुरुआत में कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) की सिफारिशों के आधार पर पेश किया जाता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रमुख उद्देश्य  भरपूर  उत्पादन अवधि के दौरान किसानों को सुरक्षा देना, और उन्हें समर्थन करना तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अनाज इकठ्ठा करना है.  वस्तुओं की खरीद और पारिश्रमिकरूप, ऐसे दो  माध्यम  है  जिससे एक प्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू किया जा सकता है. किसानो के लिए पारिश्रमिक की प्रकृति ही न्यूनतम समर्थन मूल्य और  प्राप्त कीमतों के बीच के अंतर की भरपाई कर सकता है |

बड़े पैमाने पर कृषि संकट  के चलते,  ऐसे नीतियों पर जोर देने की आवश्यकता है जो तत्काल प्रभाव से सकारात्मक परिणाम  सामने ला सकते हों। इन  परिणामों  को मूल्य और गैर-मूल्य कारक के घटकों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। गैर-मूल्य कारक दीर्घकालिक योजना से संबंधित हैं जो  बाजार  सुधार, संस्थागत सुधार और प्रौद्योगिक   क्षेत्र में नवीनीकरण पर  आश्रित  है,  जिससे  किसानो की स्थिति में सुधर हो सके   उनके  आय  में भी वृद्धि हो सके। मूल्य कारक अल्पकालिक योजना से संबंधित है जो कृषि उपज के लिए पारिश्रमिक कीमतों में तत्काल प्रभाव से वृद्धि करने पर जोर देता है | न्यूनतम समर्थन मूल्य, मूल्य के कारकों के दायरे में शामिल होता है| सरकार 23 वस्तुओं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और गन्ने के लिए FRP (उचित और पारिश्रमिक मूल्य) को अधिसूचित करती है। ये फसलें  एक कृषि अवधि में उपयोग होने वाले भूमि के  कुल क्षेत्रफल में से लगभग 84% हिस्से को सम्मिलित करता है |  लगभग 5% क्षेत्र चारा फसलों के अंतर्गत आता है  जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर्गत शामिल नहीं किया जाता |  इस गणित के अनुसार, यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य को पूरी तरह से लागू किया जाता है तो कीमतों में लाभ के लिए उत्पादकों के एक छोटे से भाग को छोड़कर कुल कृषि क्षेत्र के करीब 90% पर न्यूनतम समर्थन मूल्य लागू  होगा|  

तो, सवाल यह है कि, CACP कैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का निर्धारण करता है? न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करते समय CACP निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखता है:

  1. प्रति हेक्टेयर खेती की लागत और देश में विभिन्न क्षेत्रों में लागत की संरचना और उसमें हुए परिवर्तन।
  2. देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रति क्विंटल उत्पादन की लागत और उसमें हुए परिवर्तन।
  3. विभिन्न उत्पादक सामग्री की कीमतें और उसमें हुए परिवर्तन।
  4. उत्पादों  के बाजार मूल्य और उसमें हुए परिवर्तन।
  5. किसानों द्वारा बेची व खरीदी गयी वस्तुओं की कीमतें और उसमें हुए परिवर्तन।
  6. आपूर्ति से संबंधित जानकारी जैसे क्षेत्र, उपज और उत्पादन, आयात, निर्यात और घरेलू उपलब्धता तथा सरकार / सार्वजनिक एजेंसियों या उपक्रमों के पास भंडार की उपलब्धता| 
  7. मांग से संबंधित जानकारी, जिसमें कुल और प्रति व्यक्ति खपत, प्रोसेसिंग उद्योग की प्रवृत्ति और क्षमता शामिल है।
  8. अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कीमतें और उसमें हुए परिवर्तन।
  9. कृषिउत्पाद  से ली गई  साधित वस्तुएं मसलन चीनी, गुड़, जूट, खाद्य और गैर-खाद्य तेलों, सूती धागा की कीमतें और उसमें हुए परिवर्तन।
  10. कृषि उत्पादों की प्रोसेसिंग लागत और उसमें हुए परिवर्तन।
  11. विपणन और सेवाओं की लागत, भंडारण, परिवहन, प्रोसेसिंग, करों / शुल्क, और बाजार के  कारक द्वारा बनाए गए लाभांश, और
  12. व्यापक आर्थिक चर वस्तुएं जैसे की सामान्य स्तर की कीमतें, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और मौद्रिक व राज कोषी  करक | 

जैसा कि देखा जा सकता है, यह मापदंडों का एक व्यापक  समूह है जिसपर आयोग न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गणना के लिए निर्भर करता है। परन्तु  सवाल यह है की : आयोग को इस डेटा   कहाँ से मिलती है? डेटा आमतौर पर कृषि वैज्ञानिकों, किसान नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, केंद्रीय मंत्रालयों, भारतीय खाद्य निगम (FCI), नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (NAFED), कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (CCI), जूट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया तथा व्यापारियों के संगठन और अनुसंधान संस्थानों से एकत्र किए जाते हैं। आयोग फिर MSP की गणना करता है और इसेके अनुमोदन के लिए केंद्र सरकार को भेजता है, जो फिर राज्यों को उनके सुझावों के लिए भेजता है। एक बार जब राज्य अपनी मंजूरी दे देता है,  आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति इन आंकड़ों पर सहमति प्रदान करता है, जिन्हें फिर CACP पोर्टल पर जारी किया जाता है।

2004 में, केंद्र में शासित UPA-1 सरकार ने अपने प्रथम वर्ष के दौरान, एम.एस स्वामीनाथन  की अध्यक्षता में  राष्ट्रीय किसान आयोग (NCF) का गठन किया ।आयोग का प्रमुख उद्देश्य कृषि वस्तुओं को लागत-प्रतिस्पर्धी और  लाभदायक बनाना था। इस  उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु, खेती की लागत की गणना के लिए एक तीन-स्तरीय संरचना तैयार की गई , जो इस प्रकार  है, A2, FL और C2। A2 वास्तविक भुगतान की जाने वाली लागत है, जबकि A2 + FL वास्तविक भुगतान की जाने वाली लागत और परिवार के श्रम का प्रतिशोधित मूल्य के बराबर है, जहाँ  मानसब्बद्ध किसी चीज़ का मूल्य निर्धारण करने में उत्पाद या उसके प्रोसेसिंग जिसमे  उसका योगदान  के  अनुमान के  तहत  किसी वस्तु    का मूल्य  निर्धारित किया जाता है | C2  एक  विस्तृत  है, जिसमें स्वामित्व वाली भूमि और पूंजी पर लगा  किराया और ब्याज शामिल  है। यह स्पष्ट है कि C2> A2 + FL> A2 |

कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP)  कीमतों की सिफारिश करते हुए उत्पादन की लागत, इनपुट कीमतों में बदलाव, इनपुट/आउटपुट मूल्यों का अनुपात, बाजार के कीमतों में रुझान, अंतर फसल मूल्य का अनुपात, मांग और आपूर्ति की स्थिति, किसानों द्वारा देय कीमतों और प्राप्त कीमतों के बीच समता आदि महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में रखता है। समर्थन मूल्य तय करने में, CACP लागत की अवधारणा पर निर्भर करता है जो खेती में खर्च होने वाले सभी मदों को शामिल करता है, जिसमें किसानों के स्वामित्व वाले इनपुट्स का मूल्य भी शामिल होता है, जैसे कि स्वामित्व वाली भूमि का किराया मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज। कुछ महत्वपूर्ण लागत अवधारणाएं C2 और C3 हैं:

C3: किसान को प्रबंधकीय पारिश्रमिक के लिए C2 + C2 का 10%

स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसानों को उनके उत्पादन की सम्पूर्ण लागत से 50% अधिक की न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। यह लागत + 50% का सूत्र स्वामीनाथन आयोग से आया  और जिसमे स्पष्ट रूप से कहा गया  कि उत्पादन  लागत उत्पादन की व्यापक लागत है, जो  C2 है,  ना कि A2 + FL । C2 में वास्तविक मालिक द्वारा उत्पादन में पट्टे की भूमि के लिए किया गया किराया भुगतान  + परिवार के श्रम का प्रतिधारित मूल्य + स्वामित्व वाली पूंजीगत संपत्ति के मूल्य पर ब्याज (भूमि को छोड़कर) + स्वामित्व भूमि के किराये का मूल्य (भूमि राजस्व का  कुल मूल्य)  जैसे वास्तविक खर्च, जिसका भुगतान नकदी  व् अन्य प्रकार से किया गया हो, शामिल हैं|  उत्पादन की लागत की गणना प्रति क्विंटल और प्रति हेक्टेयर के आधार पर की जाती है। चूंकि राज्यों में लागत भिन्नता बहुत ज्यादा होने के कारण CACP अनुग्रह करता है की  न्यूनतम समर्थन मूल्य को C2 के आधार पर माना जाना चाहिए। हालाँकि, धान और गेहूं के मामले में न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी इतनी ज्यादा है कि अधिकांश राज्यों मे न्यूनतम समर्थन मूल्य न केवल C2, बल्कि C3 से भी ऊपर है।

रबी सीजन, 2017- 18  की  अनुमानित लागत और सिफारिश की गयी न्यूनतम समर्थन मूल्य (रु प्रति क्विंटल में)

Untitledस्रोत: कृषि लागत और मूल्य  आयोग और कृषि मंत्रालय

यहीं पर न्यूनतम समर्थन मूल्य की राजनीतिक अर्थव्यवस्था असहाय किसानों की समस्या को जटिल बनाती है । हालाँकि 23 फसलों  का  न्यूनतम समर्थन मूल्य  अधिसूचित किया  जाता है, लेकिन वास्तव में 3 से अधिक को सुनिश्चित नहीं किया  जाता  हैं। भारतीय कृषि क्षेत्र  छोटे आकार के कृषि स्वामित्व के चलते निम्न  स्तर के उत्पादन से त्रस्त है, प्रचलित प्रणाली के अंतर्गत लागत पर मुनाफा  किसानो के लिए कम आय पैदा करना सुनिश्चित करता है ।  इन्ही  महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर जोर देते हुए  किसान  न्यूनतम समर्थन मूल्य को  प्रभावी लागतों की तुलना में 50% अधिक बढ़ाकर, न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रभावी क्रियान्वान की मांग  कर रहें हैं। किसान और किसान संगठनों ने मांग की है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को उत्पादन की लागत + 50% तक बढ़ाया जाए,  चूँकि  उनके लिए उत्पादन की लागत का मतलब C2 है और A2 + FL नहीं । वर्तमान में, CACP, A2 और FL को जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित  करता है। सरकार फिर A2 और FL को जोड़कर प्राप्त किये गए मूल्य का 50% जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है, और इस प्रकार C2 को अनदेखा कर दिया जाता है। किसान व किसानों के संगठन  मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में C2 का 50%  जोड़ा  जाये, जो  सरकारी घोषणाओं के मुख्यरूप   से गायब है।  न्यूनतम समर्थन मूल्य के संदर्भ में किसानों  की मांग  व सरकार क्या  दे रही है, इनका अंतर ही तनाव का मुख्य कारण है | 

रमेश चंद, जो वर्तमान में निति आयोग  में  सेवारत  होने के बावजूद भी,  सरकार के द्वारा दिए जा रहे सहुलियातोँ के तार्किक विश्लेषण पर जोर देते हैं|   उनका यह भी सिफारिश है कि कार्यशील पूंजी पर ब्याज मौजूदा आधे सीजन के  बजाय  पूरे सीजन के लिए  दिया जाना चाहिए, और गाँव में प्रचलित वास्तविक किराये के मूल्य को किराए पर बिना किसी उच्चतम सीमा  के माना जाना चाहिए। इसके अलावा, कटाई के बाद की लागत, सफाई, ग्रेडिंग, सुखाने, पैकेजिंग, विपणन और परिवहन को शामिल किया जाना चाहिए।  जोखिम प्रीमियम और प्रबंधकीय शुल्कों को ध्यान में रखते हुए C2   को 10% तक बढ़ाया जाना चाहिए।

 रमेश चंद के अनुसार, न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश करते समय  बाजार निकासी कीमत को ध्यान में रखना आवश्यक है। यह, मांग और आपूर्ति,  पक्षों को प्रतिबिंबित करेगा । जब मांग-पक्ष के कारकों के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है,  तब न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता केवल बाज़ार प्रतिस्पर्धा की गैर-मौजूदगी व् निजी व्यापार के शोषक रूप लेने तक ही सिमित हो जाता है  । हालाँकि, अगर कोई न्यूनतम मूल्य भुगतान तंत्र या फसलें हैं  जिनपर न्यूनतम समर्थन मूल्य  घोषित किया गया हैं, लेकिन खरीददारी ना होने पर  सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाज़ार के निचले मूल्य के अंतर के बीच के आधार पर किसानों को मुआवजा देना चाहिए। ऐसा ही एक तंत्र, भावान्तर भुगतान योजना के नाम से मध्य प्रदेश में लागू किया गया , जहाँ पर सरकार ने किसानों से सीधे खरीद में अपने पुराने ख़राब रिकॉर्ड को स्वीकार करने के  बजाय,  बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से  कम होने पर  किसानों को सीधे नकद हस्तांतरण के माध्यम से मुआवजा देने का व्यवस्था किया गया है . भुगतान में देरी और भारी लेनदेन लागतें  इस योजना  की   नकारात्मक पक्ष हैं। बाजार में कम गुणवत्ता वाले अनाज के आधिक्य आपूर्ति जो  पहले से ही कम फसल की कीमतों पर  दबाव बनाती है। जब तक, इनकी और एम.एस स्वामीनाथन की सिफारिशों को गंभीरता से नहीं लिया जाता है, कृषि संकट का समाधान पूंजीवादी तबाही में छिपा है। और कोई ऐसा क्यों कहता है?

मूल्य की कमी वाले तंत्र पर बातचीत करने और संकल्प की ओर बढ़ने के लिए, सरकार के पास को  खरीद के रूप में एक  विकल्प  बच जाता है। लेकिन, इसमें एक विरोधाभास है। जिन फसलों लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई है, जिसकी संख्या 20 है, उनके लिए सरकार के पास स्पष्ट रूप से पहले एक प्रणाली बनाने और फिर उन फसलों की खरीद का प्रबंधन करने का बैंडविड्थ (bandwidth) नहीं है। यदि यह  स्थिति गतिरोध तक पहुँच गयी है, तो सरकार की निजी बाजारों की ओर रुख करने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।  यदि ऐसा होता है तोह  बाजार स्थानीय राजनेताओं की मनमानेपन और पसंद की चपेट में  आ जायेगा, जो आमतौर पर अपने क्रिया-कलाप में सत्ता के केन्द्रों को प्रभावित करते हहुये  सिस्टम को  अपने सुविधानुसार चलातें हैं ।

स्पष्ट रूप से कुछ ऐसे सवाल हैं जो  उत्तर की मांग करतें हैं  और ये सभी सवाल नीति बनाने के दायरे में आते हैं। उदाहरण के लिए, क्या बजट में न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आने वालेसभी किसानों के  सीमा को बढ़ाने का प्रावधान है?  दूसरा, न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना में निजी लागत और लाभ शामिल होते हैं, और इस  प्रकार केवल  एक पक्ष प्रदर्शित   होताहै। संपूर्ण समझ के लिए, सामाजिक लागत और लाभों को भी शामिल किया जाना चाहिए। मुख्य रूप से निजी लागतों और लाभों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ, सामाजिक रूप से बेकार उत्पादन और विशेषज्ञता को प्रोत्साहित किया जाता है, जैसे उत्तर भारत में धान के उत्पादन में होने वाले परिणाम जिसके  गवाह  हैं। क्या इस दोहरे बंधन को दूर किया जा सकता है, यह एक नीतिगत मामला है, और फिलहाल जो देखा जा रहा है यह एक नीतिगत पक्षाघात है और राजनीतिक इच्छा की कमी केवल वोट बैंक को बनाने के लिए की जाएगी। यह बेहद अफसोसजनक है! 

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Homological Algebra – Does A∞ Algebra Compensate for any Loss of Information in the Study of Chain Complexes? 1.0

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In an abelian category, homological algebra is the homotopy theory of chain complexes up to quasi-isomorphism of chain complexes.  When considering nonnegatively graded chain complexes, homological algebra may be viewed as a linearized version of the homotopy theory of homotopy types or infinite groupoids. When considering unbounded chain complexes, it may be viewed as a linearized and stabilized version. Conversely, we may view homotopical algebra as a nonabelian generalization of homological algebra.

Suppose we have a topological space X and a “multiplication map” m2 : X × X → X. This map may or may not be associative; imposing associativity is an extra condition. An A space imposes a weaker structure, which requires m2 to be associative up to homotopy, along with “higher order” versions of this. Indeed, there are very standard situations where one has natural multiplication maps which are not associative, but obey certain weaker conditions.

The standard example is when X is the loop space of another space M, i.e., if m0 ∈ M is a chosen base point,

X = {x : [0,1] → M |x continuous, x(0) = x(1) = m0}.

Composition of loops is then defined, with

x2x1(t) = x2(2t), when 0 ≤ t ≤ 1/2

= x1(2t−1), when  1/2 ≤ t ≤ 1

However, this composition is not associative, but x3(x2x1) and (x1x2)x3 are homotopic loops.

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On the left, we first traverse x3 from time 0 to time 1/2, then traverse x2 from time 1/2 to time 3/4, and then x1 from time 3/4 to time 1. On the right, we first traverse x3 from time 0 to time 1/4, x2 from time 1/4 to time 1/2, and then x1 from time 1/2 to time 1. By continuously deforming these times, we can homotop one of the loops to the other. This homotopy can be represented by a map

m3 : [0, 1] × X × X × X → X such that

{0} × X × X × X → X is given by (x3, x2, x1) 􏰀→ m2(x3, m2(x2, x1)) and

{1} × X × X × X → X is given by (x3, x2, x1) 􏰀→ m2(m2(x3, x2), x1)

What, if we have four elements x1, . . . , x4 of X? Then there are a number of different ways of putting brackets in their product, and these are related by the homotopies defined by m3. Indeed, we can relate

((x4x3)x2)x1 and x4(x3(x2x1))

in two different ways:

((x4x3)x2)x1 ∼ (x4x3)(x2x1) ∼ x4(x3(x2x1))

and

((x4x3)x2)x1 ∼ (x4(x3x2))x1 ∼ x4((x3x2)x1) ∼ x4(x3(x2x1)).

Here each ∼ represents a homotopy given by m3.

Schematically, this is represented by a polygon, S4, with each vertex labelled by one of the ways of associating x4x3x2x1, and the edges represent homotopies between them

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The homotopies myield a map ∂S4 × X4 → X which is defined using appropriate combinations of m2 and m3 on each edge of the boundary of S4. For example, restricting to the edge with vertices ((x4x3)x2)x1 and (x4(x3x2))x1, this map is given by (s, x4, . . . , x1) 􏰀→ m2(m3(s, x4, x3, x2), x1).

Thus the conditionality on the structure becomes: this map extend across S4, giving a map

m4 : S4 × X4 → X.

As homological algebra seeks to study complexes by taking quotient modules to obtain the homology, the question arises as to whether any information is lost in this process. This is equivalent to asking whether it is possible to reconstruct the original complex (up to quasi-isomorphism) given its homology or whether some additional structure is needed in order to be able to do this. The additional structure that is needed is an A-structure constructed on the homology of the complex…